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यदि॑ प्रवृद्ध सत्पते स॒हस्रं॑ महि॒षाँ अघ॑: । आदित्त॑ इन्द्रि॒यं महि॒ प्र वा॑वृधे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadi pravṛddha satpate sahasram mahiṣām̐ aghaḥ | ād it ta indriyam mahi pra vāvṛdhe ||

पद पाठ

यदि॑ । प्र॒ऽवृ॒द्ध॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ । स॒हस्र॑म् । म॒हि॒षान् । अघः॑ । आत् । इत् । ते॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । महि॑ । प्र । व॒वृ॒धे॒ ॥ ८.१२.८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:8 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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शिव शंकर शर्मा

उसकी कृपा दिखाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवृद्ध) हे सर्व पदार्थों से अतिशय वृद्ध ! (सत्पते) हे परोपकारी सत्याश्रयी जनों का रक्षक महादेव ! (यदि) जब-२ तू (सहस्रम्) सहस्रों (महिषान्) महान् विघ्नों को (अघः) विहत करता है (आद्+इत्) तब-२ या तदनन्तर ही (ते) तेरे सृष्ट सम्पूर्ण जगत् का (इन्द्रियम्) आनन्द और वीर्य (महि) महान् होकर (प्र+ववृधे) अतिशय बढ़ जाता है। अन्यथा इस जगत् की उन्नति नहीं होती, क्योंकि इसमें अनावृष्टि, महामारी, प्लेग और मानवकृत महोपद्रव सदा होते ही रहते हैं। हे देव अतः आपसे हम उपासकगण सदा प्रार्थना करते हैं कि इस जगत् के विघ्नों को शान्त रक्खा कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस जगत् की तब ही वृद्धि होती है, जब इस पर उसकी कृपा होती है ॥८॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवृद्ध) हे सर्वोत्तम (सत्पते) सज्जनपालक ! (यदि) जो कि (सहस्रम्) असंख्यात (महिषान्) बड़े-२ असुरों को आप (अघः) नष्ट करते हैं (आत्, इत्) इसी से (इन्द्रियम्) आपका ऐश्वर्य (महि) अत्यन्त (प्रवावृधे) बढ़ा हुआ है ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे दुष्टनाशक तथा सज्जनप्रतिपालक परमात्मन् ! आप वेदविहित कर्मों के पालक, सज्जनों के सदा सहायक रहते हैं, जो अपने कर्मानुष्ठान में कभी विचल नहीं होते और आप दुष्ट असुरों के सदा नाशक हैं। यह आपका नियम अटल है, इसी से आप महान् हैं कि आप सदा न्यायदृष्टि से ही संसार का पालन, पोषण तथा रक्षण करते हैं ॥८॥
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शिव शंकर शर्मा

तदीयकृपां दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रवृद्ध=सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो वृद्धतम। हे सत्पते=सतां परोपकारिणां सत्याश्रयीणां जनानां पालयितः। इन्द्र ! न्यायदृष्ट्या यदि=यदा यदा। त्वम्। सहस्रम्=बहून्। महिषान्=महतो विघ्नान्। अघः=अवधीः=हंसि। आद् इत्=तदनन्तरमेव। ते=तव सम्बन्धिनो विश्वस्य जगतः। इन्द्रियम्=वीर्य्यम्। महि=महद्=बहुलं सत्। प्रवावृधे=प्रकर्षेण सदा वर्धते। इति तव महती कृपाऽस्ति ॥८॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवृद्ध) हे सर्वोत्तम (सत्पते) सतां पालक ! (यदि) यत् (सहस्रम्) असंख्यातान् (महिषान्) महतोऽसुरान् (अघः) हिनस्ति (आत्, इत्) अतएव (इन्द्रियम्) तवैश्वर्यम् (महि) महत् (प्रवावृधे) प्रवृद्धम् ॥८॥